मैंने हमेशा यही किया है, बाग़ात बेच कर फ़िल्में देखी हैं, कपड़े बनवाये हैं, चायख़ाने आबाद किये हैं, लोगों को तोहफ़े दिए हैं, और अपनी किताबें छपवाई हैं। क़ैसर मंज़िल बेच कर भी यही किया - फ़िल्में देखीं, कपड़े बनवाये, चायख़ाने आबाद किये, बहुत से लोगों को तोहफ़े दिए, और सहमाही पर्चा अदबी चौपाल निकालने की कोशिश की।आइना कोई दिखाए तो बुरा लगता है।तंज़ीमकारमुकर्रमी..........की ख़िदमत मेंख़ुलूस-ो-अदब के साथ।हमलोग पब्लिशर्स की तरफ़ से जुलाई 1976 के पहले हफ़्ते में एक सहमाही पर्चा अदबी चौपाल के नाम से आ रहा हैं। अदबी चौपाल के इब्तिदाई शुमारों को अपाहिज वज़ीरों और खोखले दानिशवरों के पैग़ामात से भरने का कोई इरादा नहीं है; हमें ज़रुरत है अपने बुज़र्गों और दोस्तों की सच्ची और खरी बातों की। क्या हम उम्मीद करें कि आप मुंसलिक पोस्टकार्ड को इस्तेमाल करने की ज़हमत गवारा फ़रमाएंगे ?ख़ैर-अंदेश
बस इसी ख़त की 231 कॉपियां 16 मई से जून 1976 के पहले हफ़्ते की दरमियानी मुद्दत में हिन्द-ो-पाक के मुख़्तलिफ़ पतों पर बिखेर दी गयीं। इसी ज़बान, इसी मज़मून, इसी लहजे, इसी ख़त की एक-एक कॉपी, वो भी हाथ से लिखी हुई मोहतरमा इंदिरा गाँधी साहिबा, फ़ख़रुद्दीन अली अहमद, सैय्यद नूर उल-हसन, वी. सी. शुक्ला, अली यावर जंग, शेख़ अब्दुल्लाह, चन्ना रेड्डी, नारायण दत्त तिवारी, अम्मार रिज़वी, श्रीमती मोहसिना किदवाई, और मोहतरमा आबिदा फखरुद्दीन की ख़िदमत में भी रवाना की गयी। मगर...पुर अम्न इंक़िलाब की उजली अलामत श्रीमती इंदिरा गाँधी, यू. पी. के गवर्नर डॉ. चेन्ना रेड्डी के अलावा, अपने उन तमाम अच्छे, सच्चे और वफ़ादार साथियों के साथ ख़ामोश रहीं। मुमकिन है हमें इसी बात का अफ़सोस भी हो।
हज़रत फ़िराक़ के साथ ही सरदार, कैफ़ी, निसार, साहिर, और अख़्तर भी बेनियाज़ रहे। कृष्णा की देखा-देखी, बेदी, ख़्वाजा, हैदर, और वाजिदा ने भी चुप साध ली। फ़ारूक़ी ने जवाब नहीं दिया तो कुमार पाशी, बलराज कोमल, अमीक़ हन्फ़ी, वहाब दानिश, शहरयार, अतीक़ुल्लाह, और कृष्णा मोहन अपने साथियों की तरह जवाब कैसे दे सकते थे। हयातुल्लाह और अहमद सईद, इशरत अली और गोपाल मित्तल, उस्मान ग़नी और बिशन कपूर या हामिदा हबीबुल्लाह और सबाहुद्दीन या मलिकज़ादा और वली उल-हक़ या ख़लीक अंजुम और जगन नाथ या मक़बूल अहमद लारी और शैख़ नेमतुल्लाह - इन तमाम होशमंद हज़रात की ख़ामोशी तो समझ में आती है, लेकिन वली कमाल और माइल मलीहाबादी जैसे निडर, नए या पुराने लोगों को क्या हो गया? यूसुफ़ देहलवी और रहमान नैय्यर को शायद इस बात का एहसास ही नहीं कि उनकी चुप सहाफ़ती आदाब के बिलकुल ख़िलाफ़ है। अफ़सोस है कि इसी शहर में रतन, आइशा, अंजुम, और अनीस अभी तक एक मामूली ख़त के तजज़िये में मसरूफ़ हैं। दिलीप कुमार तो ख़ैर मुशायरों की सदारत में लगे हुए थे मगर फ़िल्मी दुनिया के दुसरे लोग क्या कर रहे थे, हमें नहीं मालूम। अफ़सोस की यशपाल, भगवती चरण और ठाकुर प्रसाद ने भी हमें किसी लायक़ नहीं समझा। हाँ पाकिस्तानी अदीबों ने हमारी आशाएं पूरी कीं - यानी सब के सब ख़ामोश रहे। खैर शिकायतें ख़त्म, बात शुरू।ये कोइ बुरी बात नहीं कि ज़्यादातर लोग, अपाहिज वज़ीरों और खोखले दानिश्वरों वाले जुमले पर उछाल पड़े हैं, तालियां बजायी हैं, और अपनी ख़ुशी का इज़हार किया है। मगर ताअज्जुब है की बाज़ रूहें सन्नाटे में आ गयी हैं ये सुन कर कि कोई सरफिरा निकला है सच्ची और खरी बातों की तलाश में। लोगों को हैरत है इस खरे और सच्चे मुतालबे पर। सभी को अपने युग की बेबसी का एहसास है। ये भी कोई बुरा नहीं है मगर सवाल ये भी है कि हम जिस दौर में जी रहे हैं वो हक़ीक़त में है क्या? क्या आज हिन्दुस्तान में लगी बेशुमार पाबंदियां इस लिए हैं कि तामीर और अमल के पहिये रोक दिए जाएँ? जी, हरगिज़ नहीं ! लूट-खसोट और बेहिसी के बेपनाह घने और काले जंगल में अच्छी सफ़ाई के लिए मज़बूत सख़्ती और शदीद पाबंदियों की ज़रुरत थी। हम इंसान दोस्ती के गहरे जज़्बे में यक़ीनन इन पाबंदियों का ख़ुलूस-े दिल से स्वागत करते हैं। हमारे इस रव्वैये में शौहरत, दौलत और ओहदे की कोइ हवस नहीं हैं। यक़ीन जानिये, हमें इस बात के इज़हार में भी तकलीफ़ महसूस होती है। हम इंतिहाई खुशी के साथ ये तस्लीम करते हैं कि हमारे देश में आज कई ज़बानें बंद हैं मगर साथ ही हमें इस बात का दुख है कि किसी ऐसे निज़ाम को क्यों नहीं लाया जाता जो नफ़रत, त'आसुब और इस्तेहसाल की बहुत ही लम्बी, काली, और ज़हरीली ज़बानें जड़ से काट ले ताकि इस देश की कोमल धरती सदियों की थकन से आज़ाद हो सके।....
...मज़ामीन के 145 भरपूर सफ़हात - इश्तिहारात बिलकुल अलग से। ये शुमारा ज़िंदगी की पहली ख़ुशी और बौखलाहट में अपनी हदों से बहुत आगे निकल गया है। याद रहे की अदबी चौपाल के दुसरे शुमारे 120 सफ़हात ही घेर सकेंगे।...कुछ लोग दाल रोटी में नहा के, साफ़ सुथरी जगह बैठ कर, सलीक़े और तमीज़ से खाते हैं और बाज़ हज़रात, शिकस्ता पुलियों, नालियों के किनारे और ग़लाज़त के ढेरों पर बैठ कर बिरयानी दाब लेते हैं। ये अपने अपने मिज़ाज और उसके झुकाव की बात है। हमलोग वाले शिकस्ता हाल हैं, मगर नाउम्मीद नहीं। अपनी बात को ढंग से कहने और सलीक़े से पेश करने का मिराक़ है इन्हें।
अदबी चौपाल के पीछे न किसी धनवान का हाथ है ना किसी चोर दरवाज़े से आने वाली दौलत की फ़रावानी। हाँ ख़ुलूस, महब्बत, लगन और सच्चाई की मिशअलें हैं इनके साथ। और जूनून है इन मिशअलों को हमेशा रौशन रखने का। सियासी इन्तिक़ाम की आग है ना जाली भुनी अज़मतों की ठंडी राख। ना कुर्सियों की हवस ना कुर्सीनशीनों को ज़लील-ो-रुसवा देखने की आरज़ू। ज़िंदगी, अदब, और सहाफ़त - इन तीन दायरों में औरों की कोशिशों से उभरने वाले सच्चे, सिजल और ख़ूबसूरत नक़ूश पर पर्दा डालने की बीमारी है ना अदबी चौपाल की राह से किसी एक या दो-चार या दस-बीस लोगों के लिए कोइ ख़ास इमेज बनाने की बहुत ही बुरी ख़्वाहिश।
बस प्यार है ज़िंदगी और आदमी से, वाबस्तगी है उसकी उलझनों से, हमदर्दी है उसकी मजबूरी से, और इंतिहाई गहरा रिश्ता है किसी बड़े समाजी इन्क़िलाब से। तक़सीम और सरहद का कोइ तसव्वुर नहीं है अदबी चौपाल के पास। हमलोग वाले किसी भी ज़बान की स्क्रिप्ट (script) को उसकी मजबूरी जानते हैं, रस्म-े ख़त की बुनियाद पर फ़िक्र-ो-फ़न की हद बन्दियाँ नहीं करते। उर्दू में हिंदी और हिंदी में उर्दू वालों के लिए बंद दरवाज़ों को खुलवाने चाहते हैं ताकि फ़िक्र-ो-एहसास के ठन्डे-गर्म और गुनगुने पानियों के तेज़ धारे स्क्रिप्ट (script) की रतीली दीवारों को अपने साथ बहा ले जाएँ। लोगों से मिलिए, पूछिए, फिर सोचिये, और यक़ीन जानिये कि हमलोग वाले निरे कारोबारी लोग नहीं हैं। दौलत बटोरने और शौहरत कमाने का शौक़ नहीं है इन्हें। बस अपने ज़ौक़ की बेपनाह वुसअतों में टूट के मेहनत करते हैं और अपनी मेहनत के मीठे फल आपकी ख़िदमत में पेश करना चाहते हैं। क़बूल फ़रमायें !- अनवर नदीम1-7-1976
दिलचस्प बात ये है कि आपने जितनी किताबें प्रकाशित की वो सब खुद आपकी थीं सिवाए एक के। अस्ल में अनवर नदीम साहब कारोबारी ज़हन रखते ही नहीं थे। वो इकलौती किताब जो आपकी नहीं थी पर जिसे आपने हमलोग पब्लिशर्स के तहत शाया (प्रकाशित) किया साग़र मेहदी का शेरी मजमुआ (काव्य संग्रह) दिवांजलि था।
उस किताब में आपने साग़र मेहदी का जो ख़ाका खींचा वो मुलाहिज़ा फरमाएं:
न क्लर्क है, न ठेकेदार; न स्मगलर है, न व्यापारी, न सियासी कीड़ा, न समाज सुधारक; न बूढ़ा, न बेहिस; न मन से कोमल, न तन से निर्बल! टीचर है - बोझल-बुज़दिल, मगर खुद को आज़ाद समझने वाले समाज का ! शाइर है - जंगों, नफ़रतों और हिमाक़तों की राह पर दौड़ती, भागती बीसवीं सदी का ! सांस लेता है आज के कड़वे युग में - मगर बातें करता है मीठी-मीठी ! कभी सोचता है तो ग़ज़ल की पुरानी ज़बान में। अपने चेहरे पर उदासी को बरतने में कामयाब - ज़रीफ़ भी है और भावुक भी - फ़नकार है - मज़दूर है शब्दों का - मगर अपने लिए शब्दों की नई फ़स्ल काटने से डरता है। उर्दू शेर-ओ-अदब के कल और आज से वाक़िफ़; माज़ी के लिए बे-अदब और हाल के लिए पुर-शौक़ - मगर लफ़्ज़ों को अपने एहसास का रंग देने में अभी तक नाकामयाब ! काश उसकी रचना-शक्ति अपने पैरों पर खड़ी हो सके !