Saturday, December 29, 2018

"नया साल" | अनवर नदीम (1937-2017)




आज का दिन भी मिरी रूह पे भारी गुज़रा
आज भी आ गया माज़ी के बिखरने का ख़याल
आज भी चेहरा-ए-उम्मीद था ज़ख़्मी ज़ख़्मी
मेरा बचपन ही मिरी ज़ात से लिपटा लिपटा
फूट के आज भी रोता रहा मेरे अंदर
ख़्वाहिशें आज भी मजबूर-ो-परेशान निकलीं
हसरतें धुल उड़ाती रहीं एहसास के बीच
हौसले आज भी घबरा गए बैठे बैठे
आज का दिन भी मिरी रूह पे भारी गुज़रा !

फिर भी ये रस्म की लेना है हर इक चेहरे से
हर नए साल के मौक़े पे मुबारकबादी
और रस्मन उसे वापिस भी यही करना है
ये भी अच्छा है की करने को नहीं कोई अमल
कोई मंज़िल, न किसी राह की धुंधली सी लकीर !
आज का दिन भी मिरी रूह पे भारी गुज़रा

हर नया साल इसी रस्म की उंगली थामे
गर्दिशें करके कहीं दूर निकल जाता है
और हम लोग बड़े शौक़ से होते हैं जमा
अलविदा कह के समझते हैं नयी बात हुई
फिर नए साल की देते हैं मुबारकबादी !

- अनवर नदीम (1937-2017)

Monday, December 24, 2018

"The Only Poet" | Anwar Nadeem (1937-2017) | Translation: Ghulam Rizvi 'Gardish'

People
just caught hold of Iqbal
and stuck to him
once for all -
keeping themselves away
from a camel's hold
and a dog's spring!
yah!
they took it for granted
that religion
history
poetry
society
that social issues
as it were -
no longer demand
to think over
and understand again!

let India
with its latitude
and amplitude
remain in tatters!!

- Anwar Nadeem (1937-2017)
Translated from Urdu by Ghulam Rizvi 'Gardish'
Indian Literature (Sahitya Akademi's bi-monthly journal), 197, Vol. XLIV, No. 3, May-June 2000, pp. 71-72.



Sunday, December 23, 2018

"ग्रीटिंग कार्ड" | अनवर नदीम (1937-2017) | "Greeting Card" | Anwar Nadeem (1937-2017)




मुबारकबादियों के खोखले अलफाज बिकते हैं

चलो तैयार हो बाज़ार में हर चीज़ मिलती है
हमें अब क्या ज़रूरत है क़लम और काग़ज़ की
भरें दामन में आखिर किस लिए जज़्बात के मोती
हमें फ़ुरसत कहाँ हम थाम लें अपने ख़यालों को
हमें अपनी ज़रूरत की खबर की क्या ज़रूरत है !

कभी घर से निकल कर देखिये बाज़ार का जलवा
हमारी हर ज़रूरत को दुकानें ही तराशेंगी
क़लम को हाथ में लेने से फूटेगी परेशानी
मुबाराकबाद के लिए काग़ज़ को छेड़ें क्यों
ग्रीटिंग कार्ड से आती है तक़रीबात में रौनक़
हमारे मुंतशिर एहसास के ये तर्जुमा ठहरे
हमारे आप के हर ख़्वाब की ताबीर बिकती है
चलो तैयार हो, बाज़ार में हर चीज़ मिलती है

- अनवर नदीम (1937-2017)

"सलीब मेरे मसीहा की जगमगाती है" | अनवर नदीम (1937-2017)




"रगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं  क़ायल"
"की  ख़ून -ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ हम ने"
"ज़ख्म-ए-सर है आप अपनी दास्तां/पत्थरों से ज़िंदगी पूछेगी क्या"
"जो चुप रहेगी ज़बान-ए-ख़ंजर, लहू पुकारेगा आसतीं का"

हमारे शेर-ओ-अदब की दुनिया उन्हीं ख़यालों से सुर्ख़रू है
हमारा ईमां रहे सलामत कि ख़ुश कमालों से  सुर्ख़रू है
हज़ार मौक़ों पे खून मांगा है पाक रूहों ने
अज़ल से अब तक हमारी धरती उन्हीं ख़यालों से  सुर्ख़रू है

बस्ती की चौपालों में, खेतों में, खलियानों में
आवारा बंजारों में, हुशियारों, मस्तानों में
बहुत पुरानी एक सदाक़त आज भी कितनी रौशन है
क़ुर्बानी की अज़मत का चर्चा है इन्सानों में

रगों में ख़ून कि गर्दिश है ज़िंदगी की बहार
कभी लहू का ख़ज़ाना है ज़िंदगी पे निसार

लहू - रंग बदन हो कि कारज़ार-ए-ह्यात
हर इक जगह पर यहाँ खून की ज़रूरत है
तमाम आलम-ए-इंसानियत की राहों में
सलीब मेरे मसीहा की जगमगाती है

बड़े यकीन से कहता हूँ सांस लेता है
हर एक सच्चे मुसलमां में एक ईसाई

हमारे अहल-ए-वतन के विशाल हृदय में
जगह बनाई है इस्लाम की हिदायत ने
पयाम-ए-वेद-ए-मुक़द्दस की अज़मतें अक्सर
हमारे आपके अफ़कार में झलकती हैं

न जाने फिर ये तास्सुब कहाँ से उभरा है
तमाम ज़ालिम-ओ-जाबिर यही समझते हैं
वही तो मालिक-ओ-मुख्तार हैं ज़माने के
अगरचे दीन की, हिकमत की कुछ किताबों ने
दरीचे खोल दिये हैं कई फ़सानों के !

मगर कहाँ किसी ज़ालिम ने अपनी ताक़त में
नज़र उठा के कभी इबरतों को देखा है
गुनाहगार तो सब हैं ज़मीं की छाती पर
ग़म तो ये है कि एहसास-ए-गुमरही कम है

इसी खयाल से मरियम के पाक बेटे ने
ये एतराफ़ का तोहफा दिया जमाने को

- अनवर नदीम (1937-2017)

Saturday, September 15, 2018

"गाँधी बाबा के उपकार" | अनवर नदीम (1937-2017)


कुछ दायरे बनाये थे गाँधी के ज़िक्र ने
कुछ दायरे बनाये हैं गाँधी के ज़िक्र ने !


 













पहला दायरा

अँधेरा था बहुत गहरा, जहालत का, ग़ुलामी का
तसव्वुर की ख़राबी का , इरादों की तबाही का
ज़माना था वो ज़ुल्म-ो-ज़ोर की काफ़िर जवानी का
कोई मंज़र कोई मौक़ा नहीं था ख़ुशगुमानी का

ग़ुलामी कब सुनाती है किसी को प्यार का क़िस्सा
ये ज़ालिम दे नहीं सकती किसी हक़दार का हिस्सा
जहालत भी ग़ुलामी के सफ़र में साथ चलती है
बहुत ग़मगीन हालत में ये काली रात ढलती है
जहालत, ज़िंदगानी से उमंगें छीन लेती है
हमारे अंत को अपने भंवर मैं डाल देती है
ग़ुलामी को हटाने के जतन में थे कई पैकर
कफ़न-बरदोश सांसें थीं हमारे देश के अंदर




 













दूसरा दायरा

तहज़ीब का संसार सजाने को रहे याद
इक़दार की तौक़ीर बढ़ाने को रहे याद
हर दौर को रहती है हिदायत की ज़रुरत
तारीख़ का मक़सद भी ज़माने को रहे याद

गांधी ने ग़ुलामी से छुड़ाने के अमल में
लड़ने का तरीक़ा भी सिखाया था रहे याद
लानत वो छुआछूत की मिटटी में मिला दी
इस देश को मिटने से बचाया था, रहे याद

 











तीसरा दायरा

में हिंदुस्तान हूँ, मेरा जहां सब से निराला है
मिरे बच्चों ने, मेरे हौसले का दिल सम्भाला है
यहां ख़ुसरो , यहां चिश्ती, यहां गौतम, यहां गाँधी
सभी ने प्यार का सीधा सरल रास्ता निकाला है
में हिंदुस्तान हूँ, मेरा जहां सब से निराला है !

 



चौथा दायरा

जिस देश में सांसें लेते हैं , उस देश की बातें करना हैं
जिस देश में गंगा धरती पर ईमान की धारा बनती है
जिस देश के हर इक मंज़र से भगती के इशारे मिलते हैं
जिस देश में उल्फत रचती है इक ताजमहल के सपने को
जिस देश के नाज़ुक होटों से आवाज़ लता की गूंजे है
जिस देश की मिटटी सोना है, जिस देश में गाँधी जन्मे थे
जिस देश में सपने बांटे थे, गांधी के मुबारक जज़्बों ने
जिस देश की धरती जागी है तदबीर की मंज़िल पाने को
जिस देश के बाज़ू उठते हैं आकाश की सीमा छूने को
जिस देश के कोने कोने से गाँधी के निशाँ कुछ कहते है
जिस देश में गंगा बहती है, उस देश से गाँधी उभरे थे
जिस देश से गाँधी उभरे थे , उस देश की बातें करना हैं

मोहन दास करमचंद गाँधी
नाम था उस शोहरा-ए-आफ़ाक़ महात्मा का
जिस की अमर आत्मा ने
हिन्दुस्तान के इस शोहरतयाफ़्ता नारे को
अपने ख़ून से सुर्खरू कर दिया
"काम है मेरा तग़य्युर , नाम है मेरा शबाब
मेरा नारा, इंक़लाबो इंक़लाबो इंक़लाब - (जोश)

"अजूब-ए-रोज़गार गाँधी को
सारी दुन्या हैरत से देखती है
और बीसवीं सदी के
अक़्ल-ए-कुल (अल्बर्ट आइंस्टाइन ) के ख़याल में
"आने वाली नस्लें भी
गाँधी की बातें सुन के
हैरतज़दा रहेंगी "

गंगा, गाँधी और लता , प्यार मुहब्बत का संसार
गंगा से आसान हुआ , मानव जीवन का आधार
और लता के नग़मों से , सारा आलम है सरशार
दुनिया भर की क़ौमों पर गाँधी बाबा के उपकार !
 



- अनवर नदीम (1937-2017)

Friday, September 14, 2018

"हिंदी पखवाड़ा" | अनवर नदीम (1937-2017)


ये हिंदी का पखवाड़ा है, सब के मन को भाता है
भाषा के लिए होने वाले कुछ कामों को दर्शाता है 

हर साल इसी पखवाड़े में, कुछ बातें कहते सुनते हैं
जब लोग ज़रा ख़मोश हुए इक भाषा योगी बोल उठा
भाषा के दरख़तों से देखो कुछ पत्ते अक्सर गिरते हैं
वो सूखे पत्ते शब्दों के, आवारा बन के फिरते हैं
वो सूखे पत्ते रचना को क्या ताज़ा रूप दिलाएंगे
क्या बात करेंगे सपनों की, क्या मंज़िल तक ले जाएंगे
भाषा की लचकती शाख़ों पर, कुछ नाज़ुक पत्ते आते हैं
वो नाज़ुक पत्ते ह्रदय की हर हालत को दर्शाते हैं
क्या हिंदी, हिन्दू भाषा है? क्या उर्दू मुस्लिम भाषा है?
इन घटिया, चोर सवालों से क्या मुस्तक़बिल की आशा है
इस हिंदी के पखवाड़े में, उर्दू की बातें आम करो
तफ़रीक़ मिटाओ भाषा की, हर प्राणी को अब राम करो 

ये हिंदी का पखवाड़ा है, ये सब के मन को भाता है
भाषा के लिए होने वाले कुछ कामों को दर्शाता है 
 


- अनवर नदीम (1937-2017)

Monday, September 3, 2018

"Who is it who just came close to me" | Anwar Nadeem (1937-2017) | Translation: Saira Mujtaba



Born in our past, that boy has grown up
His pain being that he opened his eyes amidst the strangest people
Someone tell him, that your father sings paens of loyalty
Someone tell him, that your mother too has set foot in the city of love
Someone tell him, that your life is touching a turf of bonds,
That was erstwhile untouched by the rays of union
For who had ever given consent till now that a Jāt girl’s desires,
Would tread the path of love holding Pathān hands?
For when from the lands of Pathāns, a banner of endearment had ever risen so high?
A keeper of happiness, a figure of benevolence
When have such stories of moderation ever been rewarded?
When have the limits of clans ever witnessed such passion?
Born in our past, that boy has grown up
His pain being that he opened his eyes amidst the strangest people
He verily knows that in the heartbeats of the Jāts, his father
Occupies a strange yet interesting place; being an example of love
In temples of knowledge, his mother stands tall as an example of dignity,
Igniting the eternal lamps of love all around
Isn’t it enough that a portion of the great inheritance of love,
Bestows a life with dignity and sprinkles flowers on someone’s path?
But how will this small thing ‘Anwar’ ever be comprehended?
Born in our past, that boy has grown up
His pain being that he opened his eyes amidst the strangest people

- Anwar Nadeem (1937-2017)
Translated from Urdu by Saira Mujtaba

"ये कौन मेरे क़रीब आया" | अनवर नदीम (1937-2017)



हमारे माज़ी में जन्म लेकर वो एक लड़का जवां हुआ है
उसे ये ग़म है की उसने कैसे अजीब लोगों में आँख खोली
कोई बताए की बाप तेरा वफ़ा के नग़मे सुना रहा है
कोई बताए की तेरी मां भी प्रेम नगरी में गामजन है
कोई बताए की तेरी हस्ते कुछ ऐसे रिश्तों को छू रही है
कि जिन से पहले मिलन की किरनें फ़ज़ा को रौशन न कर सकी थीं
कहाँ इजाज़त मिली थी अब तक कि जाट लड़की की आर्ज़ूएँ
पठान हाथों का साथ लेकर वफ़ा की राहें गुलाब कर दें
कहाँ पठानों की सरज़मीं से वफ़ा का परचम उठा के निकला
महब्बतों का अमीन-ए-ख़ुशतर, लतीफ़ जज़्बों का एक पैकर
कहाँ सलामत-रवी की दौलत मिली है ऐसी कहानियों को
कहाँ क़बीले के दायरों में किसी ने ऐसा क़रार देखा
हमारे माज़ी में जन्म लेकर वो एक लड़का जवां हुआ है
उसे ये ग़म है कि उसने कैसे अजीब लोगों में आंख खोली
उसे तो मालूम है कि जाटों कि दिल कि धड़कन में बाप उसका
अजीब दिलकश मक़ाम लेकर, मिसाल-ए-उलफ़त बना हुआ है
तमाम दानिशकदों में उसकी अज़ीम मां की मिसाल अब तक
जला रही है जिधर भी देखो, महब्बतों के चिराग़ पैहम
ये कम नहीं है महब्बतों की अज़ीम दौलत का एक विर्सा
किसी की हस्ती को आबरू दे, किसी की राहों में फूल भर दे
मगर ये छोटी सी बात अनवर समझ का हिस्सा बनेगी कैसे?
हमारे माज़ी में जन्म लेकर वो एक लड़का जवां हुआ है
उसे ये ग़म है की उसने कैसे अजीब लोगों में आँख खोली !

- अनवर नदीम (1937-2017)

Yé kaun méré qarīb āyā 
Hamāré māzī méiṅ janm lékar vo ék ladkā javāṅ huā hai
Usé yé gham hai kī usné kaisé ajīb logoṅ méiṅ āṅkh kholī 
Koī batāyé kī bāp térā vafā ké naghmé sunā rahā hai
Koī batāyé kī térī māṅ bhī prém nagarī méiṅ gāmzan hai 
Koī batāyé kī térī hastī kuchh aisé rishtoṅ ko chū rahī hai
Kī jin sé pahlé milan kī kirnéiṅ fazā ko raushan na kar sakī thīṅ 
Kahāṅ ijāzat milī thī ab tak ki Jāt ladki kī ārzūéiṅ
Pathān hāthoṅ kā sāth lékar vafā kī rāhéiṅ gulāb kar déiṅ 
Kahān Pathānoṅ ko sarzamīṅ sé vafā kā parcham uthā ké niklā
Mahab’batoṅ kā amīn-é-khushtar, latīf jazboṅ kā ék paikar 
Kahāṅ salāmat-ravī kī daulat milī hai aisī kahāniyoṅ ko
Kahāṅ qabīlé ké dāyré méiṅ kisī né aisā qarār dékhā 
Hamāré māzī méiṅ janm lékar vo ék ladkā javāṅ huā hai
Usé yé gham hai kī usné kaisé ajīb logoṅ méiṅ āṅkh kholī 
Usé to mālūm hai ki Jātoṅ kī dil kī dhadkan méiṅ bāp uskā
Ajīb dilkash maqam lékar, misāl-é-ulfat banā huā hai 
Tamām dānishqadoṅ méiṅ uskī azīm māṅ kī misāl ab tak
Jalā rahī hai jidhar bhī dékho, mahab’batoṅ ké chirāgh pai’ham 
Yé kam nahīṅ hai mahab’batoṅ kī azīm daulat ka ék virsā
Kisī kī hastī ko ābrū dé, kisī kī rāhoṅ méiṅ phool bhar dé 
Magar yé chhotī sī bāt ‘Anwar’ samajh kā his’sā banégī kaisé? 
Hamāré māzī méiṅ janm lékar vo ék ladkā javāṅ huā hai
Usé yé gham hai kī usné kaisé ajīb logoṅ méiṅ āṅkh kholī

- Anwar Nadeem (1937-2017)


 
 

Saturday, August 25, 2018

"योम-असातज़ाह के मौक़े पर" | अनवर नदीम (1937-2017)



गर्मी के आंगन में हवा का ठहराव
वर्षाकाल में बादल को तरसते आकाश के नीचे
धुप की तेज़ी और जाड़े की बहारें
तूफ़ानी हवाओं की शहज़ोरी
सब कुछ बुरा लगता है !
ईद और होली मिलान में
शादी और सालगिरह की तक़ारीब में
हवसनाक फ़िल्मी गीतों का शोर भी
अच्छा नहीं लगता !
सियासी मंच पर
अक़्ल से पैदल लोगों के दरमियान
बद्तमीज़-ो-बेदिमाग़ भाषणों के होटों पर
उर्दू शाइरी के गन गान से वहशत होती है !
खालिस हिन्दुस्तानी महफ़िलों में
अमरीकी लिबास, विलायती खान पान
और अंग्रेज़ी ज़बान की कसरत
बहुत नागवार गुज़रती है !
अच्छी और सच्ची बात
अगर सही मुक़ाम पर
मुनासिब वक़्त पर कही जाए
तो सत्यम-शिवम्-सुंदरम के जादूई असर को
दूर तक फैला सकती है !

और पांच सितम्बर का मुबारक दिन
सत्यम-शिवम्-सुंदरम का प्रतीक है
और उसी प्रतीक के उजाले में
हर्फ़ों की पहचान, शब्दों का ज्ञान
संवाद का किरदार, वार्तालाप की रफ़्तार
हासिल करने वाली नस्लें
मिट्टी को सोना बनाने वाली हस्तियों के आगे
एहसान से झुक रही हैं
समरदार शाख़ों की तरह लचक रही हैं !
और यही वो मुनासिब वक़्त है
जब मिट्टी को सोना बनाने वाली हस्तियों से
दिल की बात कही जा सकती है !

ये ग़ैर मामूली काम
है तो बहुत ज़रूरी
कि इब्न-ए-आदम को
बिन्त-ए-हव्वा को
क़लम पकड़ने का हुनर सिखाया जाए
ताकि वो हर्फों, शब्दों, जुमलों की
बहती गंगा में आसानी से तैर सके
और काग़ज़ की किताब
किताब-ए-हस्ती के हर बाब को
सलीक़े से खोलने में उस की मदद करे !

मगर किताबों का बहुत भारी भोज
सर पे लादने का ये मतलब हरगिज़ नहीं है कि
इंसान अब दरिंदा नहीं बन सकता !
कोशिश कीजिये कि इंसान की औलाद
किसी भी सूरत में राक्षस ना बनने पाए !

इस हक़ीक़त को तस्लीम करने में
हर्ज ही क्या है कि
हमारी ज़मीन, हमारा समाज
रद्दे-अमल के ज़ेरे असर है !
तमामतर नेकियां, शरारतें
इख़लास, धोके
सब कुछ रिएक्शन का नतीजा हैं !
रोशन ज़मीर इंकलाबियों के साथ साथ
उभरने वाली तमामतर क़हर सामानियां
प्रतिक्रया की छोटी बड़ी कहानियां हैं !

फिर भी कोशिश यही करना है कि
घर, समाज, स्कूल, संस्थान
दानिशकदों के सरे दायरे
जागते रहें, जगाते रहें
ताकि किसी भी एक्शन
रिएक्शन के खेल में
दरिंदों के खेल में
दरिंदों को सांस लेने, करवट बदलने
सर उठाने का मौक़ा न मिले !

अनवर नदीम (1937-2017)

"बाल गोपाल की अज़मतों को सलाम" | अनवर नदीम (1937-2017)





मिरी मुहब्बत , मिरी अक़ीदत, मिरे तसव्वुर की चंद कलियाँ
अभी खिली हैं, महक रही हैं , मिरे कृष्णा! क़बूल कर ले

सफीर--शुजाअत , अनुराग वाला
वो ज़ुल्म--सितम के लिए आग वाला
वो बंसी बजैया, शरारत की धारा
वो चितचोर सारे जहां का दुलारा

उसी के जन्म की घडी रही है
बड़ी खूबसूरत फ़ज़ा छा रही है
चलो आज कर लें उसी का नज़ारा !

बालपन की हदों से जवानी तलक
हर ज़माना तहय्युरमआबी का है
जब ज़बां खोलता है तो लगता है ये
हर इशारा तग़य्युरमआबी का है

बाल गोपाल की अज़मतों को सलाम
इस्लाम को सपने में बसाये हुए "हसरत"
रखते थे कन्हैया के रवैय्यों से अक़ीदत

वो शाइर-दरवेश-सिफ़त ताज नगर का
हासिल थी उसे मेरे कृष्णा की मुहब्बत

बाल गोपाल की अज़मतों को सलाम

क्या ख़ूब था गोपाल के बचपन का तमाशा
माखन के बहाने से बना चोर कन्हैया
मुंह खोल के दुनिया को दिखाया था अजूबा
मासूम शरारत में रसूलों का रवैय्या !

देखा है सदा आपने सूरज को उभरते
हम ने तो हमेशा यही महसूस किया है
धरती को अंधेरों से करेगा यही आज़ाद
गोपाल के किरदार की तस्वीर है सूरज

बस्ती बस्ती, द्वारे द्वारे, झांकी कृष्ण कन्हैया की
"ख़ल्क़ख़ुदा की देखन आई" मीर का फ़िक़रा याद करो

एक यही पैग़ाम सुनहरा, भारत वर्ष के दर्शन का
"कृष्णा, कृष्णा" कहते कहते अपने मन को शाद करो

ज़मीन--आकाश की हदों में जहां भी देखो मैं डोलता हूँ
तमाम फ़िक्र--अमल की गिरहें, अज़ल से अब तक मैं खोलता हूँ
बहुत सवेरे, वो कौन मेरे, क़रीब आके, ये कह गया है
"मैं हर्फ़--आख़िर कहाँ से लाऊँ, मैं हर ज़माने में बोलता हूँ"

झलकियां -फ़िक्र--नज़र की अष्टमी की राह में
अनवर--ख़स्ता की काविश कृष्ण की इक चाह में
पेश करके रूह मेरी हो चुकी है शादमां
दिल को सब कुछ मिल गया आप की इस वाह में !

(अनवर नदीम)