तहज़ीब-ो-तमद्दुन का शहर लखनऊ अपने साहित्यिक तथा कलात्मक रचाव के लिए हमेशा से जाना जाता है। यहीं की साहित्यिक दुनिया के सशक्त हस्ताक्षर हैं - शायर अनवर नदीम। मासूम ग़ज़लें (पानी), वास्तविकता को छूते रिपोर्ताज़ (जलते तवे की मुस्कुराहट), नज़्में (जय श्री राम), ज्यों की त्यों अपनी जीवनी (ख़ाना-ख़राब), तथा इसके अतिरिक्त तमाम लेखन कार्य - यह है अनवर नदीम की क़लम का सफर। प्रस्तुत है उनसे की गयी साधी-सादी तथा कुछ फ़लसफ़ियाना बातचीत:
लेखन की शुरुआत कब की?
उम्र के बीसवें साल से।
बचपन से लेकर अब तक के सफ़र में तमाम उतार-चढ़ाव आये होंगे। बचपन कहाँ बीता? युवावस्था का दौर कैसा रहा? तब से लेकर अब तक आपने पारिवारिक, सामजिक, तथा राजनीतिक संबंधों में परिवर्तन को कैसे महसूस किया ?
आँख खोली १९३७ में, जन्म लिया आफ़रीदी पठानों के ज़मींदार खानदान और आमों की मशहूर बस्ती मलिहाबाद में। वहीं जीवन के दस उदास और नीरस वर्ष बिताने के लिए मजबूर किया गया। होश संभालने से पहले कर्मठ पिता ने दुनिया छोड़ दी। अपने मान की बारहवीं और आख़िरी औलाद की हैसियत से मैंने घर में आठ जीवित भाई-बहनों को कुछ इस तरह महसूस किया कि किसी को मेरी ज़रुरत, मेरी फ़िक्र नहीं। बड़े भाई पेशे से वकील और दिल से पत्थर। शिकार, सिगरेट और क़ानूनी दांव-पेच, बस यही था उनका जीवन। उन्होंने दुनिया कुछ इस तरह समेटी कि मेरे लिए साहिर लुधियानवी का यही सवाल क़ीमती बनता चला गया - "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है !" दुसरे भाई ने खुद को यूनिवर्सिटी लेक्चरशिप (university lectureship) के लिए बड़े सलीक़े से तैयार किया था। उस ज़माने का वाईस चांसलर (vice chancellor) उस दार्शनिक नौजवान को लखनऊ विश्विद्यालय का दिल समझता रहा, मगर उर्दू विभाग की नौकरी, घिनौनी चालाकियों के सहारे दूर भागती रही और ज़िंदादिल भाई बुरी तरह टूटता रहा। शिकारी, वकील और दुनियादार भाई, मुस्लिम लीगी, समाज, साहित्य, और तमान धर्मों की ओर झुकने वाला भाई, कांग्रेसी। बड़ा भाई हिन्दू समाज से बिलकुल अलग, दूसरा भाई विशाल भारत के जान-जान का प्रेमी। चार भाई पाकिस्तान के ख़याल से पूरी तरह संतुष्ट, एक भाई देश के विभाजन से बुरी तरह ज़ख़्मी। घर में दो बहनें, मगर आज बरसों बाद उनके दिलों की टटोल ज़रा मुश्किल है। बचपन और लड़कपन से लड़कियां अच्छी और बाहर अच्छी लगती थीं। चरित्रवान जवानी का हर पल उन्हीं के ख़याल से परीशान रहा, और आज भी सुन्दर मुखड़े ज़िन्दगी का सहारा हैं।
सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में क्या कहना है?
सवाल ये है कि ज़िन्दगी को ख़राब होना था, हो चुकी है
इलाज-ए-हस्ती की कोई सूरत निकाल सकते हो क्या ज़मीं पर।
इंसान-इंसान के बीच संवादहीनता क्यों है?
हमने सदा अपने को युसूफ-ए-सानी समझा
आइना कोई दिखाए तो बुरा लगता है।
संवादनीनता के इस बहुत ही ख़राब युग में कविता और संगीत को पूरे विशवास के साथ सलीक़े से बरतने की ज़रुरत है।
इंसान की ज़िन्दगी में उदासी, अकेलापन, ख़ालीपन तथा टूटन को कुछ हद तक साहित्य बांट लेता है। आप कहाँ तक इस बात से सहमत हैं?
इस कथन से पूरी तरह सहमत हूँ। सारा संसार पेचीदा बीमारियों के लिए बहुरंगी दवाओं से भरा पड़ा है। दवाएं कभी-कभार नाकाम रहकर भी बहुत बड़े पैमाने पर कामयाब रहती हैं। तमाम ललित कालाएँ, ख़ास तौर से साहित्य की कोमल बाहें, दुखिया, ज़ख़्मी मानवता का बहुत बड़ा सहारा हैं।
पच्चीस-तीस बरस पहले का लखनऊ अपने अतीत से जुड़ा हुआ था। रूमान-पर्वर था यहां का माहौल। आज का लखनऊ, विकासशील लखनऊ, हर पल बदलते-उभरते समाज में अपनी जगह बना रहा है और मुझे उसकी ये कोशिश आज बुरी नहीं लगती क्योंकि मैंने कहा था:
शऊर-ए-ज़िन्दगी लिए नई सहर का आदमी
पुकारता है देर से कि सरज़मीन-ए-दिलबरी
तुझे ज़रा ख़बर नहीं कि सोचती है तीरगी
दबोच लेगी बस अभी इस अंजुमन की रौशनी
मुझे न रास आएगी ये सरज़मीन-ए-ज़िंदगी।
साहित्य निराशा के क्षणों से कैसे उबारता है?
साहित्य का बुनियादी मक़सद ज़िंदगी को ख़ुशगवार बनाना है। उलझनों से घिरा क़लमकार इसी मक़सद से अपनी ज़िन्दगी को सामान्य (normal) बनाता है।
रचना कार्य के चालीस वर्षों में ज़िन्दगी ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे हैं और क़लम ने मुझे अपनी मामूली बातों के इज़हार के कई अवसर दिए हैं।
सांस के सिलसिले को इस तरह न गुज़ारा जाए कि तनहाई जीवन का मुक़द्दर बन जाए और ख़ुद को भीड़ का हिस्सा भी न बनने दिया जाए, बल्कि अपनी विशेष पहचान के साथ, सादगी के उजाले ख़याल को बरता जाये।
मेरे मिज़ाज में दौड़-भाग नहीं है। चाल वही पसंद करता हूँ जिसमें सांस न उखड़े। जितना काम किया है, उससे कहीं ज़्यादा भी कर सकता था। फिर भी मेरे हाथों अब तक जो कुछ भी हुआ है उसकी सुंदरता का एहसास मेरे मन में मिठास पैदा करता है।
नज़्मों-ग़ज़लों की कई किताबें सामने आ चुकी हैं। अपनी जीवनी 'ख़ाना-ख़राब' को अपना बेबाक लहजा दे चुका हूँ। किताब छप रही है। रिपोर्ताज़ की पुस्तकें शोहरत कमा चुकी हैं। वे रिपोर्ताज़ साहित्य की उंगली पकड़ के निकले थे। जी चाहता है कि अपने विशाल देश को एक रिपोर्ताज़-निगार की हैसियत से दूर तक देखता और दिखाता चला जाऊं।
किसी भी तरह की पीड़ा से डरता हूँ, मगर मरने के लिए हर पल तैयार हूँ। ज़िन्दगी का रवैय्या कुछ ऐसा है, लगता है कि ख़ुदकुशी कर रहा हूँ।
अणि रचना शक्ति से, कुछ ग़ज़लों की मर्यादा से
अनवर जी ने बाँध लिया है गीतों को, संगीतों को।
फैज़ अहमद फैज़ का एक शेर:
इक ज़रा सी बात पर बरसों के याराने गए
अपने-अपने ज़र्फ़ से कुछ लोग पहचाने गए।
पसन्दीदा शायर - बहुत पुरानों में सिराज औरंगाबादी, पुरानों में मीर तक़ी मीर, और अपनी नौजवानी के शायर साहिर लुधियानवी
पसन्दीदा रंग - मूगिया।
पसन्दीदा किताब - अनवर नदीम की जलते तवे की मुस्कराहट
ज़िन्दगी और कायनात का मालिक एक ही है, मगर उसके अनेक नाम हैं। उसके हर नाम को चाहे वो किसी भी भाषा से सम्बंधित हो, सबके लिए मान्य और पूज्यनीय बनाने का ख़याल दिल को गर्माता भी है और कुछ काम करने के लिए उकसाता भी है।
अक़ीदा - निहायत ग़ैर मज़हबी, एक बेनाम ताक़त का परस्तार, कायनात जिसकी आसमानी किताब, मज़ाहिर-ए-फ़ितरत जिसके सहीफ़े।
मिज़ाज - रवैय्यों में अच्छी-ख़ासी शराफ़त, इंकिसारी, और लचक, मिज़ाज में थोड़ी सी कमीनगी।
प्रस्तुति: कावेरी
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