Sunday, August 11, 2019

The Only Urdu Poem on the Holocaust (Shoah) | Poet: Anwar Nadeem |Translation: Saira Mujtaba
















The series of this pain should not continue!


The magic of life and death,
Is spread in all directions,
Relief comes with tribulations,
Troubles come with fortitude,
Each footstep is laden with darkness,
Light is in the hands of Time,
What should I comment on the event unfurled?
A moment of false comfort.
Life, again in this torture cell,
The Day of Judgement in every epoch,
A blood bath of humanity,
If only one could interpret this nightmare.
The only desire that still remains, friends!
The series of this pain should never be born again!

- Anwar Nadeem (1937-2017)
Translated from Urdu by Saira Mujtaba

The English translation above is of the only poem ever written in Urdu on the Holocaust (Shoah), the Nazi genocide of the Jews. The Urdu poem was originally published in the trilingual brochure (Urdu, Hindi , and English) of a Holocaust films retrospective held in Lucknow, India, in 2009. It was the first ever Holocaust films retrospective in South Asia. Please find the article "The Only Urdu Poem on the Holocaust and its Author" by Dr. Navras J. Aafreedi, Assistant Professor, Department of History, Presidency University, Kolkata and Research Fellow, Institute for the Study of Global Antisemitism and Policy (ISGAP), New York here








































Saturday, August 10, 2019

Jai Shri Ram! | Anwar Nadeem (1937-2017) | Translation: Saira Mujtaba

If,
You have come brandishing Jai Shri Ram's sword
Then move forward,
I offer you my head
Slash it!
In front of the sword my tongue won't ever utter
Those three words.
But,
If you have come with the sacred mantra of Jai Shri Ram,
Then here are my arms to embrace you,
Then don't walk in front of me
Follow me,
So that even beyond the borders of my country,
I fill the impure air with sacred echoes,
Of Ram's blessed name.

- Anwar Nadeem (1937-2017)
Translated from Urdu by Saira Mujtaba

"बहन-भाई का प्यारा रिश्ता" | अनवर नदीम (1937-2017)


कोख में मां की, बहन भाई का प्यारा रिश्ता
क़ुदरत-ए-कामिला रचती है अछूता क़िस्सा
लफ्ज़ पैहम की है चहकार ज़माने भर में
ज़िक्र रहता है शब्-ो-रोज़ हमारे घर में
किस ने अलफ़ाज़ के जंगल से नए नाम चुने
वक़्त कब देखिये नामों में उजाला भर दे
यूं तो मज़हब ने बड़े काम किये हैं लेकिन
आज ग़ारतगरे-तहज़ीब है उसका हर दिन
नस्ल और ख़ून का सिक्का भी नहीं चलता है
इस बहाने से कोई शख़्स कहाँ बनता है
हम ने माना की बुरी और बुरी हैं दुनिया
फिर भी ख़्वाबों के उजालों से सजी है दुनिया
फख्र की, नाज़ की बुनियाद गिरानी होगी
नेक जज़्बों की इमारत ही उठानी होगी !

- अनवर नदीम (1937-2017)



Thursday, August 8, 2019

अनवर नदीम (1937-2017) का सिनेमा से सम्बन्ध उनके चंद सवान-ए-हयाती नस्रपारों (आत्मकथात्मक गद्यांशों) में

गुल्ली-डंडा छूआ नहीं, कंचे खेले नहीं,  क्रिकेट या हॉकी में दिलचस्पी ली नहीं, फुटबॉल या कबड्डी की तरफ लपका नहीं, तैराकी या घुड़सवारी के पीछे दौड़ा नहीं, ताश या कैरम ने जी लुभाया नहीं - दिलचस्पी थी फिल्म से, दिल आज भी उसी की तरफ झुकता है - बदन में अदाकारी की सलाहियतें रेंगती हैं - दिल शायरी के लिए मचलता है - दमाग़ कहानियां बुनता है। मगर साहब! ये अदाकारी का जौहर, ये शायरी की दौलत, ये कहानियों की फसलें - इनकी निकास का कोई तरीक़ा ?... मन की तहदारियाँ न हांक लगाने दें, न घर से बाहर निकलने दें। चेहरों के हुजूम में किसी से रिश्ता, किसी से क़ुरबत , मगर सबके आगे बेलाग, बेलौस बातें और क़हक़हे - न काम की फ़िक्र, न शोहरत की भूक , न दौलत की हवस। ज़रूरतें पूरी हो गयीं तो ठीक, न पूरी हो सकीं तो बेपर्वाह , पूरी ज़िंदगी न तो किसी नशे का सहारा लिया, न खुद सादगी का दामन पकड़ा। घर से मिली दौलत को भूईं-भूईं करता रहा। मगर ग़ालिब के इस शेर से जो रिश्ता था वो हमेशा क़ायम रहा:

आवारगी से गो रहे रुसवा-ए-दहर हम
बारे तबीअतों के तो चालाक हो गए !

-        I never touched the Gulli-danda, nor played with marbles, never took interest in cricket or hockey, didn’t leap towards football or kabaddi; didn’t run after swimming or horseriding; cards and carom didn’t impress me. My interest lay in films. Even today, my heart is inclined towards them. The ability to act crawls through the entire body, the heart becomes anxios for poetry and the mind weaves stories. But gentlemen! Is there a way to channelize the talent of acting, the fortune of poetry and this crop of stories? The layers of the mind don’t allow to shout out or to step outside the house. In this multitude of faces, relations with a few, friendliness with others, but still very different from everyone. Conversation without pretence and hearty laughters- neither worrying about work nor hungry for fame, nor lusting for money. If essential needs were met, then fine, if not, then didn’t care a dime. All my life, I didn’t seek solace in any kind of intoxication nor clinged to simplicity; but the relationship I’d struch with this couplet of Ghalib, remained forever:

 

āvārgī sé go rahé rusvā-é-dahar ham

Bāre tabiyatoṅ ké to chālāk ho ga’é


(Translation by Saira Mujtaba)


अनवर नदीम की किताब किरचें: एक फ़िल्मी दास्तान (2013) के कुछ अंश:

"...पुरमज़ाक़ जे. पी. दत्ता साहब ने नदीम का हाथ पकड़ते हुए फ़रमाया - "क्या आप अपनी हेरोइन से नहीं मिले ...आइये" और पल भर में बहुत कुछ देख लेने का शौक़ और हुनर रखने वाले नदीम की नज़रें मोहतरमा ऐश्वर्या राय के सामने झुकी रहीं।  हवेली के बिलकुल आख़िरी हिस्से में, मिर्ज़ा 'रुसवा' के बाईं तरफ़ चिलमन के उस पार, उमरावजान 'अदा' अपने सारे बदन को समेटे हुए बैठी है - ऐसा लगता है जैसे ये इंसानी गठरी अनवर के इस शेर को साकार करना चाहती है:

रेत  का ढेर यही सोच के रह जाता है, 
देखिये काट के ले जाए किधर से पानी।  

और मिर्ज़ा 'रुसवा' के दाहिनी तरफ कैमरे के पीछे हिदायतकार की ज़हानत सांस ले रही थी।  कैमरे के लिए कुछ ज़ाविये बनाये जा रहे हैं।  नदीम इस ख़ालीपन को भरना चाहते हैं।  उनके पास ही दाहिनी तरफ़ बेटी समान, बूटा बदन, होशमंद, फुर्तीली शाहाना, अपने हाथ में क्लैप-बोर्ड लिए हुए खड़ी है, नदीम की बेतकल्लुफ़ उंगलियां उसी की चेहरे के सामने रक़्स करने लगती हैं और उनकी भारी-भरकम ऊंची आवाज़ असग़र गोंडवी के इस शेर को फ़ज़ा में उछाल देती है:

नज़र उस हुस्न पे ठहरे तो आख़िर किस तरह ठहरे 
कभी जो फूल बन जाए, कभी रुख़सार हो जाए 

दत्ता साहब के पुरमज़ाक़ जुमले की गूँज हमेशा याद रहेगी - "नदीम साहब! ये शेर जिसे सुनाना चाहते हैं उसे देख भी लीजिये" - कुछ देर के लिए सदीम सकते की हालत में, हालांकि उन्होंने कुछ और अशआर भी सुनाये, मगर दत्ता साहब के फ़िक़रे की चुभन सब पर भारी रही।  

ख़ुद को फ़िल्मों से जोड़ने का सपना नदीम ने दस बरस की उम्र में देखा था और 24 बरस बाद, हैदराबाद के एक फिल्ममेकर (filmmaker) की फ़रमाइश पर, यहीं लखनऊ में बैठ कर एक ओरिजिनल (original) कहानी लिखी थी, जिसका मंज़र नामा, मुकालमे और गीत - सब कुछ अपना था।  गीतों को शोहरत मिली थे, फिल्म का एक गीत मुहम्मद रफ़ी ने गाया था और यहीं लखनऊ में नदीम अपनी उम्र के चौतीसवें साल में पहली बार फ़िल्मी कैमरे के सामने आया था।  सन 72 में सर पर काले घने सुन्दर बाल थे और मुँह में ख़ूबसूरत दांतों के मोती - और आज 34 बरस बाद 6  अप्रैल 2006 को अपने आबाई वतन मलिहाबाद में नदीम अपनी उम्र के अड़सठवें साल में, आप चाहें तो अस्ल उम्र को सर्टिफ़िकेट एज (certificate age) के लिहाज़ से सिर्फ 64 ही समझ लें।  कैमरे के सामने इस शक्ल में आ रहा है कि सर पे दूर तक गंजेपन की हुकूमत है और अस्सी फ़ीसद बाल बिलकुल सफ़ैद है, बड़ी बड़ी आंखों पर चश्मा बिराजमान है और खूबसूरत बत्तीसी की कई दीवारें टूट चुकी हैं, हालांकि बदन में कसबल है, कलेजे में ज़ोर और आवाज़ में जज़्बों की गर्मी हैं।  नदीम का क़लम धनी है और बहुत कुछ लिख चुका है और अभी कुछ और लिखने का जूनून है।"  

अनवर नदीम की अप्रकाशित आत्मकथा "ख़ानाख़राब" का एक अंश: 

... 1956 में उन्नीस साल की उम्र में आवारगी को दीन-ए-मज़हब की हैसियत से क़बूल कर लिया।  न दारु, न सिगरेट, न गांजा, न चरस।  मगर फ़िल्म-बीनी ज़िन्दगी का सहारा बन गयी।  न औरत, न लड़का, न पत्ता, न सट्टा, मगर चायख़ाने ज़िन्दा रहने का मक़सद बन गए।  सन 62 के एक मन्ज़ूम ख़त में लिखा था:

ओडियन आइयेगा अगर चौक से 
ढाल होगी वहीं आपके सामने 
हाँ, उसी पर चलें बस ज़रा दो क़दम 
फिर मिलेंगे वहीं धोबनों के ख़सम 
उन से ये पूछिए "भाई! मछली मोहाल 
क्या यही है जहां हैं वो अनवर कमाल 
सुबह से शाम तक जो निकलते नहीं 
और सुना है निकल कर, पलटते नहीं?"
आप को घेर लेंगे कई आदमी 
उनके होटों पे हल्की सी होगी हंसी 
वो यक़ीनन कहेंगे यही आप से 
"उनसे मिलने के मुमकिन नहीं रास्ते 
हो सके तो बारह के बाद आइये 
तब ही मुम्किन है हज़रत को यां पाइये 
फिल्म-बीनी का ऐसा है चस्का, जनाब! 
फिल्म-बीनी में गुज़रा है सारा शबाब!"

An Excerpt from Namrata Joshi, Reel India: Cinema off the Beaten Track (Gurugram: Hachette India, 2019):

For all those success stories, however, and the mutual love and affection shared by Lucknow and Mumbai, there are also tales of fiascos, of aborted ventures and filmi dreams dying young. Our Lucknow trip comes to a close with one such sad, untold and undocumented story of a film called Kirchein (Shards), written by Anwar Nadeem Kaiser Bari, nephew of the Pakistani poet Josh Malihabadi; a film that was launched and relaunched, but never made.

Anwar Nadeem confesses that he was always interested in movies, in writing songs and spinning stories, but was just as sceptical about taking the train from Lucknow’s Char Bagh railway station to Mumbai, to forge a career in the Hindi film industry. He wanted films to come home to him. For a while,

it seemed as if his dream would actually turn into a reality.

In 1971 he met Satyanand Rao, who hailed from a village in Andhra Pradesh and wanted to make a film that was set in Lucknow. Nadeem’s Kirchein, about a woman who tries to bring her sister out of the kotha-tawaif (courtesan) world by marrying her off to her own lover, caught Rai’s fancy. Three songs were recorded in Bombay (now Mumbai), among them, a rare Muhammad Rafi gem: ‘Chaahoon bhi to soch na paaoon mera mann kya soch raha hai. However much I try, I can never tell what my heart is feeling.’ A unit came down to Lucknow from Bombay for the shoot. But things got stalled even before they could start in earnest. A production of Mehfil Films, launched by Nawab Jafar Mir Abdullah in the ’80s, Kirchein never saw the light of day for lack of finances – or so the nawab claims. A decade later, Rao tried to relaunch the film with a new name – Thakan. A new theme song was also recorded for it. A unit came down from Bombay again. And yet again, things ground to a halt for the same reason – lack of finances.

Nadeem refuses to talk much about it. All you can sense is a deep cynicism and an irreparable fissure in his relationship with the nawab. But even as it lies unmade, the films’s script has been published as a book. Does he anticipate the possibility of the film eventually being made, now that Lucknow is buzzing with film shoots?

‘No’, comes the curt reply. ‘It’s about a culture whose tracks have been erased. It’s about the past that no longer exists.’

It’s about a city that is lost in time, even as another Lucknow thrives today in Bollywood films.

Anwar Nadeem (centre) with filmmaker Satayanand Rao (with beard)