कोख में मां की, बहन भाई का प्यारा रिश्ता
क़ुदरत-ए-कामिला रचती है अछूता क़िस्सा
लफ्ज़ पैहम की है चहकार ज़माने भर में
ज़िक्र रहता है शब्-ो-रोज़ हमारे घर में
किस ने अलफ़ाज़ के जंगल से नए नाम चुने
वक़्त कब देखिये नामों में उजाला भर दे
यूं तो मज़हब ने बड़े काम किये हैं लेकिन
आज ग़ारतगरे-तहज़ीब है उसका हर दिन
नस्ल और ख़ून का सिक्का भी नहीं चलता है
इस बहाने से कोई शख़्स कहाँ बनता है
हम ने माना की बुरी और बुरी हैं दुनिया
फिर भी ख़्वाबों के उजालों से सजी है दुनिया
फख्र की, नाज़ की बुनियाद गिरानी होगी
नेक जज़्बों की इमारत ही उठानी होगी !
- अनवर नदीम (1937-2017)
लफ्ज़ पैहम की है चहकार ज़माने भर में
ज़िक्र रहता है शब्-ो-रोज़ हमारे घर में
किस ने अलफ़ाज़ के जंगल से नए नाम चुने
वक़्त कब देखिये नामों में उजाला भर दे
यूं तो मज़हब ने बड़े काम किये हैं लेकिन
आज ग़ारतगरे-तहज़ीब है उसका हर दिन
नस्ल और ख़ून का सिक्का भी नहीं चलता है
इस बहाने से कोई शख़्स कहाँ बनता है
हम ने माना की बुरी और बुरी हैं दुनिया
फिर भी ख़्वाबों के उजालों से सजी है दुनिया
फख्र की, नाज़ की बुनियाद गिरानी होगी
नेक जज़्बों की इमारत ही उठानी होगी !
- अनवर नदीम (1937-2017)
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