Friday, July 17, 2020

"प्रतीक्षा" | अनवर नदीम (1937-2017)

औरत नाम है प्रतीक्षा का,
प्रतीक्षा प्यार की
आदर और सत्कार की। 

प्रतीक्षा उस ज़माने की
जो जन्नत को शरमाएगा
जिस की अभिलाषा में
संसार में आँख खोली। 

प्रतीक्षा उस मानव आकार की
जो आदमी से इंसान बनने की कोशिश में
अपने सारे जीवन की पूरी शक्ति लगा दे। 

स्वर्ग की बातें कहते-सुनते
हमने उसके सपने देखे
धरती के उस पार गगन में
कैसी जन्नत, कैसी दोज़ख़
लाख पते की बात है इतनी
कर्म से अपने फूल खिलेंगे
धरती पर जन्नत महकेगी

नारी का ये जीवन काल
जन्नत का रखता है ख़याल
मानव रचना के पल पल में
आदर्शों के ख़्वाब सजाये

हम नारी की औलादें हैं। 
नारी के सपनों की ख़ातिर
इस धरती के हर गोशे को
जन्नत की तस्वीर बना दें। 

- अनवर नदीम (1937-2017)
 
 The poem Pratīkshā pays a tender tribute to woman, who embodies the capacity to wait for love. Her sense of respect transforms this earth into paradise; and her beauty and bliss put even paradise to shame. She raises a man from the animal plane to human; and beckons to heaven with her ideals and dreams thereof. Who has seen heaven or hell beyond this earth? It is here and here alone that the heavenly fragrance of feminine grace will suffuse our lives.
 
- Professor Sarva-Daman Singh, Director, Institute of Asian Studies, Brisbane, Australia

Thursday, July 2, 2020

"राज दुलारे" | अनवर नदीम (1937-2017)


घर आंगन के फूल हैं कितने, कोमल, सुन्दर, भोले-भाले
इन के दम से हंस देता है
दुखिया के संसार का जीवन
ये माटी के पुतले न्यारे
इन पे निछावर प्यार का जीवन

घर आंगन के फूल हैं कितने, कोमल, सुन्दर, भोले-भाले
ये अपनी तुतली भाषा में
कह जाते हैं प्यार की गाथा
फैल रही है सारे जग में
एक इसी मुस्कान की भाषा

घर आंगन के फूल हैं कितने, कोमल, सुन्दर, भोले-भाले
ये ममता के राज दुलारे
दीन-धरम के द्वार न जायें 
कोई भी इन से रूठ न पाए
ये भगवान को साथ खिलाएं

घर आंगन के फूल हैं कितने, कोमल, सुन्दर, भोले-भाले
काले-गोरे , उजले-मैले
सब की ख़ुशियों के रखवाले
इन के द्वार से जीवन पाने
सारी दुनिया हाथ पसारे

घर आंगन के फूल हैं कितने, कोमल, सुन्दर, भोले-भाले

- अनवर नदीम (1937-2017)