Wednesday, August 9, 2023

जब याद करो तुम अनवर को...

- नवरस आफ़रीदी 


जब याद करो तुम अनवर को, तब सोचना उसकी बातों को 

जब नींद न आये रातों को, जब चादर ठंडी लगती हो !

- अनवर नदीम 

अनवर नदीम मुसलमान नहीं थे, पर उनकी अंत्येष्टि इस्लामी पद्धिति से हुई।  ऐसा नहीं है की उन्होंने इस बात को कभी राज़ रखा हो और ना ही ऐसा कि उनकी पत्नी या संतान मुसलमान हों।  इसका सरोकार केवल इस बात से है कि उनका जन्म एक मुसलमान परिवार में हुआ था, हालांकि वे मुसलमान नहीं थे।  लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं कि उन्होंने उसके स्थान पर किसी अन्य धर्म को स्वीकार कर लिया हो।  उनकी जिस नज़्म में उनकी आस्था सिमट आई, वो है 'हमारे क़ातिल':


मौत की नींद से पहले भी इन्हें देखा था
आख़िरी बार यही लोग मिले थे हम से
अपनी तारीक-मिज़ाजी को सजाये रुख़ पर
अपनी उलझन को लपेटे हुए अपने सर पर
उंगलियां ज़ुल्म की, तस्बीह के दाने मजबूर
भोंडे माथे पे सजाये हुए चावल की लकीर
ख़ुद उड़ाते हुए कुछ ज़ौक़े-सलीबी का मज़ाक़
पीली चादर में समेटे हुए काली रूहें
अपने होटों पे सपेदी को लपेटे चेहरे
मौत की नींद से पहले भी इन्हें देखा था 
आख़िरी बार यही लोग मिले थे हम से। 

हमने फूलों की हंसी, चाँद की किरनें लेकर
जी में ठानी थी बसायेंगे महब्बत का जहां
बस यही लोग तभी आये ये कहने हमसे

ज़िन्दगी रस्म के संसार में आबाद करो
रूह के पाँव में ज़ंजीर-ए-इबादत डालो
कोहना अफ़कार की चादर को लपेटो सर से
और सजदे में झुकाओ ये महब्बत की जबीं। 

मौत की नींद से पहले भी इन्हें देखा था 
आख़िरी बार यही लोग मिले थे हम से। 

इन की बातों पे हंसे, हंस के यही हम ने कहा
हम नहीं ज़ौक़े-इबादत से पिघलने वाले
हम नहीं अपने इरादों को बदलने वाले
अपने कानों में फ़क़त दिल की सदा आती है
हम कहाँ दहर की आवाज़ सुना करते हैं। 
हम को क्यों रस्म के संसार में ले जाओगे
हम को क्यों कोहना रवायात से तड़पाओगे
हम हैं आवारा-मिज़ाजी के पयम्बर, यारो। 
हम से गर सीख सको, सीख लो जीना, यारो। 

मौत की नींद से पहले भी इन्हें देखा था

आख़िरी बार यही लोग मिले थे हमसे।


वे क्या थे और कौन थे इसका अनुमान इन तीन अशआर से बख़ूबी हो जाता है: 

"हम मज़हब-वजहब क्या जानें, हम लोग सियासत क्या समझें

हर बात अधूरी होती है उम्मीद के ठेकेदारों की" 

"बहुत सवेरे वो कौन मेरे क़रीब आके ये कह गया है 

मैं हर्फ़-ए-आख़िर कहाँ से लाऊँ , में हर ज़माने में बोलता हूँ" 

"ज़िन्दगी की तड़प, उसकी  समझ, शाइरी की लगन और काफ़िर क़लम, बस यही हर घड़ी साथ मेरे रहे, दिन, महीने, बरस गुनगुनाते रहे, शेर होते रहे, गीत बुनते रहे

फ़िक्र-ो-फ़न के लिए, ज़िन्दगी की ख़ुशी, प्यार की आरज़ू, रूह की ताज़गी, सब लुटाता रहा, ख़ुद बिखरता रहा, इस तमाशे की लेकिन किसे है ख़बर, मैं नज़र में ज़माने की आया नहीं" 

वे वास्तव में "नज़र में ज़माने की" आये नहीं।  यही कारण है कि जब उनके देहांत पर लोगों ने उन्हें श्रद्धांजली अर्पित की, चाहे ज़बानी या लिखित, तो उल्लेख उनकी मेहमाननवाज़ी (अतिथिसत्कार) का रहा ना कि साहित्य में उनके योगदान का।  

वे साहित्य और समाज के एक कटु समालोचक थे और किसी भी सामूहिक पहचान से बहुत दूर - चाहे उस पहचान का आधार हो धर्म या नस्ल या राष्ट्रीयता या क्षेत्रीयता या जाति या राजनैतिक/सामाजिक विचारधारा या भाषा या सभ्यता।  उन्होंने कभी भी किसी भी साहित्यिक सभा या संस्था की सदस्यता नहीं अपनाई।  भरपूर जीवन जिया, पर सामाजिक जोड़तोड़ और साहित्य क्षेत्र की राजनीति से बिलकुल अपरिचित रहे।  इसको वे ख़ुद यूं बयान करते हैं: 

घर से दूर, ख़ानदान से अलग, सरहदों का दुश्मन, रस्मी बंधनों से आज़ाद, दीनी हुजरों से नावाकिफ, समाजी तमाशों से बेज़ार, सियासी गलियों से गुरेज़ाँ, फ़िक्री दायरों से बेतआल्लुक, घर-आँगन में बाज़ारी रवैय्यों की ठंडक से मुज़महिल, टूट'ती-बिखरती क़द्रों के लिए अजनबी, मगर अपनी आज़ाद मर्ज़ी से उभरने वाले चाँद उसूलों का सख़्ती से पाबन्द, नामवर लोगों के दरमियान मग़रूर-ओ-मोहतात, बेनाम चहरों का बेतक्कालुफ़ साथी, काग़ज़ी नोटों के तालुक से फ़ज़ूलख़र्च, मगर आरज़ू करने, राय बनाने, प्यार देने और वफ़ादारी बरतने की राह में इन्तिहाई बख़ील । कुछ कर गुजरने की सलाहियत से मामूर, मगर साथ ही ख़्वाहिशों की दुश्मनी से भरपूर - बेटा बना, न भाई, साथी बना न दोस्त, किसी भी राइज कसौटी पर पूरा उतरने की सलाहियत से महरूम। घर, समाज, नस्ल, कौम, वतन, दीन, ज़बान, तहजीब, खून, तारीख़  - किसी भी त'आसुब, जज़्बे या इज़्म से फूट के बहने वाले गहरे, लंबे, खुशरंग, ख़ौफ़नाक दरयाओं के ठन्डे, गुनगुने पानियों से बहुत दूर - तन्हा और उदास, बोझल और प्यासा!

(मैदान, पृष्ठ 9)

सामाजिक पहचानों से उनकी चिढ़ व्यक्त होती है  उनकी नज़्म  'असीर-ए-जमाअत' में:

ऐ मेरे दोस्तों !
ऐ मेरे साथियो !
तुम इसी अहद के 
मैं इसी दौर का 

ज़िन्दगी का अलम 
आत्मा की खुशी 
तीरगी का सितम 
रौशनी की कमी 
ग़म तुम्हारा मेरे दिल का मेहमान है 
मेरा ग़म है तुम्हारे दिलों में मकीं 

ज़िंदगी को मगर देखने के लिए 
सोचने के लिए, नापने के लिए 
ज़िंदगी को बरतने की खातिर मगर 
ज़ाविया भी अलग 
फ़ासला  भी अलग 
हौसला भी अलग 

तुम उठाये रवायत की भारी सलीब 
तुम बग़ल में दबाये पुरानी किताब 
तुम जो लफ़्ज़ों के दर्पन को छू लो अगर 
छूट जाए वहीं दस्त-ए-तासीर से 
तुम पुराने ज़मानों से मानूस हो 
तुम की भुझते चराग़ों की तक़दीर हो 
तुम असीर-ए-जमाअत, मेरे साथियो !
तुम कहाँ फरदियत को करोगे क़बूल 

वे खुद अपने सबसे बड़े दुश्मन थे और इसका उन्हें एहसास भी था जिसका अंदाज़ा उनके इन दो अशआर से बख़ूबी होता है: 

मेरे अपने हाथ में ख़ंजर, उस पर मेरे दिल का ख़ून 
मेरा क़ातिल कौन है दुन्या, आख़िर अपने मुँह से बोल !

मैं इन्क़िलाब की मंज़िल जीत भी लेता  

मेरे मिज़ाज की बिल्ली ने रास्ता काटा ! 

उनका स्वभाव बिलकुल उस पात्र के जैसा था जिस अंतिम किरदार को उन्होंने अपने नाट्य जीवन में निभाया - शूद्रक द्वारा रचित संस्कृत नाटक मृचकटिकम का मुख्य पात्र चारुदत्त जो अपनी सारी धन-दौलत अपने मित्रों के अतिथिसत्कार और मनोरंजन में खो देता है।  चारुदत्त को प्यार था वसंतसेना से।  उसी प्रकार चारुदत्त का पात्र निभाने वाले अनवर नदीम को महब्बत हो गयी वसंतसेना का पात्र निभाने वाली उनकी सह कलाकार डॉ. मंजु  सिकरवार से।


वे रंगमंच में सक्रिय तो थे पर साथ ही बदनाम भी थे रेहर्सल्स में नियमित रूप से आने के बावजूद अस्ल मंचन के दिन ग़ायब हो जाने के लिए।  जब वसंतसेना (जिस नाम से शूद्रक के नाटक मृचकटिकम को डॉ. मंजू सिकरवार द्वारा स्थापित नटराज रंगशाला मंचित कर रही थी) के अस्ल शो का दिन आया तो अनवर नदीम की आँखें नम थीं इस चिंता से कि अब रेहेअर्सल्स के सिवा मंजु जी से मिलने का और क्या बहाना होगा।  यह ऐसा पहला नाटक था जिसके फ़ाइनल शो में वे मंच पर अवतरित हुए।  शो की समाप्ति के बाद भी मुलाक़ातों का सिलसिला यथावत रहा। अंततः अनवर ने प्रेम अभिव्यक्त कर ही दिया।  जवाब में इक़रार तो हासिल हुआ पर एक शर्त के साथ - कि वे बी. ए. (BA) की डिग्री प्राप्त कर लें।  वे सत्रह बरस से हर साल बी. ए. पार्ट २ में दाख़िला लेते रहे थे और हर बार परीक्षा में बैठने के उद्देश्य से निकलने के बावजूद रास्ते में किसी भी जानकार के मिल जाने पर किसी भी चायख़ाने का रुख़ कर बैठे थे और इस प्रकार इम्तिहान अगले साल के लिए मुल्तवी करते रहे थे।  मंजु की इस शर्त के परिणाम स्वरूप बी. ए. की सारी परीक्षाओं से सफलता के साथ गुज़र गए और बी. ए. डिग्री के साथ मंजू का साथ भी प्राप्त कर लिया जीवन संगनी के तौर पे।  


आज ऐसे विवाह को "लव-जिहाद" का नाम देने में लोग बिलकुल संकोच नहीं करेंगे हालांकि यह शादी भारतीय संविधान के विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत सम्पन हुई और इसमें कोई धर्म परिवर्तन नहीं हुआ।  चाहे संकोच के साथ या दिल पर पत्थर रख के दोनों ही ख़ानदानों ने शादी को स्वीकार कर लिया।  मंजु के मथुरा निवासी आर्यसमाजी हिन्दू जाट ख़ानदान ने भी और अनवर के मलिहाबाद निवासी पठान मुस्लिम खानदान ने भी।  ऐसी सहजता के साथ उनके विवाह के स्वीकार होने का शायद मुख्य कारण यह था कि दोनों ने उम्र की उस मंज़िल पर शादी की थी जब उनके ख़ानदान उनकी शादी की सारी उम्मीदें छोड़ चुके थे।  अनवर ३८ के थे और मंजु ३७ की।हालांकि उनके झूठे जन्म प्रमाणपत्र के अनुसार वे उम्र में मंजु से छोटे थे।  जन्म प्रमाणपत्र के मुताबिक़ उनका जन्म १ फ़रवरी १९४२ को हुआ था न की २२ अक्टूबर १९३७ को।  

विवाह के दो वर्ष उपरान्त नाचीज़ का जन्म हुआ।  पैदाइश से पहले ही अनवर तय कर चुके थे कि नाम होगा 'नवरस', किसी भी ग़ैर-ज़रूरी पुछलग्गे के बग़ैर।  मगर आख़िरकार स्कूल के दबाव में पुछलग्गे जुड़ ही गए नाम से।  

उनका जीवन दर्शन उनकी जिस नज़्म में झलकता है वह है 'सीधी सी बात': 


हर एक शहर को नफ़रत है इब्न-ए-आदम से 

हर एक मक़ाम पे मेला है तल्ख़-कामी का 

हर एक अहद में सूली उठाये फिरते हैं 

वो चंद लोग जो दुनिया से दूर होते हैं 

वो चाँद लोग जो ठोकर पे मार देते हैं 

कुलाह-ो-तख़्त-ो-सियासत की अज़मतें सारी 

ज़मीं उन्हीं को पयाम-ए-हयात देती है 

वही पयाम जिसे तुम अजल समझते हो।     

 



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