Friday, September 14, 2012

अनवर नदीम अपनी तीन किताबों में

राम लाल नाभवी 


मेरे सामने अनवर नदीम की दो किताबें, जय श्री राम और मैदान, जो नज्मों और ग़ज़लों के मजमुए हैं, रक्खे हैं। जय श्री राम के उनवान से ये अंदाजा हुआ था की ये बाबरी मस्जिद के सानिहा पर लिखी हुई या लिखवाई हुई नज्में होंगी लेकिन किताब पढने के बाद पता चला की मुसन्निफ़ किसी और ही मिटटी के बने हुए हैं। उन्हें वतन से, वतन के कल्चर से, उसकी तहज़ीब से, मुख़्तलिफ़ ज़बानों से बेपनाह महब्बत है। मुसन्निफ़ सच बोलता है और सच के अलावा कुछ नहीं बोलता। ज़रा मुलाहज़ा फरमाइए, क्या कहते हैं:

उर्दू ने संस्कृत के वतन में आँख खोली थी, फिर भी उर्दू में संस्कृत क्या, देसी/इलाक़ाई ज़बानों/बोलियों का कोइ एक लफ़्ज़ अपने मख़सूस नुकीलेपन के साथ दिखाई नहीं देता। मेरी नज़र में यही रवैय्या , उर्दू कल्चर की मुबारक बुन्याद रखता है, मगर अफ़सोस की यही रवैय्या अरबी/फारसी के आगे गिड़गिड़आने लगता है और हम उर्दू में अरबी बोलने लगते हें। हमारी समां'अत, हमारी तहरीर, हमारा क़लम, अरबी अलफ़ाज़ के नुकीलेपन से कब तक ज़ख़्मी होते रहेंगे?
(जय श्री राम, पृष्ठ 30)

मुसन्निफ़ की नज्मों के उन्वानात  - शब्दावली, एक छोटी घटना, धर्म संकट, जय श्री राम, गुर मंतर, मानवता, गंगा-जमुनी, मुसन्निफ़ के ख़यालात की अक्कासी करते हैं। अनवर नदीम को समझना है तो गहरा मुतालआ चाहिए, वक़्त की नब्ज़ पर उंगली हो, महदूद दाइरों से बाहर जाना पडेगा। "जय श्री राम!" से इक्तिबास देखिये: 

लेकिन अगर
तुम जय श्री राम के पावन मंत्र के साथ आये हो
तो गले लग जाओ
फिर मेरे आगे नहीं
मेरे पीछे-पीछे चलो
ताकी मैं अपने देश की सरहदों के उस पार भी
सारी दुनिया की आलूदा फ़ज़ाओं को
राम के मुबारक नाम की गूँज से भर दूं

(जय श्री राम, पृष्ठ 77)

"ज़रुरत है" के उनवान से जो नज़्म लिखी गयी है, वो मुसन्निफ़ की सही और बेख़ौफ़ सोच की आइनादार है। नज़्म "पाकिस्तानी शजरा" में मुसन्निफ़ ने लतीफ़ अंदाज़ में चोट की है। ऐसी ही नाज़ुक और पुर-मआनी चोट "अकेला शायर" में मिलती है जो इकबाल परस्तों के लिए एक ताज़ियाना है। मुसन्निफ़ के सेक्युलर मिज़ाज और वतन की हर चीज़ से महब्बत का अक्स उनकी नज़्म "एक शर्त" में मिलता हैं:

मैं हिन्दुस्तान से कहीं दूर
बहुत दूर जाना चाहता हूँ
मगर एक शर्त के साथ !
गंगा की लहरें और हिमालय की ऊंचाइयां
मेरे साथ होंगी
यहाँ के संगीत की आवाजें
और रक़्स की तमाम जुम्बिशें
मेरे साथ जायेंगी।

(जय श्री राम, पृष्ठ 64)

"दोहरी ज़िम्मेदारी" में मुसन्निफ़ ने क्या कहा है, वो भी सुनिए:

मुशाइरे के एक फ़नकार की हैसियत से
मेरी यही ज़िम्मेदारी है कि
मैं शायरी भी सुनाऊँ
और तमाशा भी दिखाऊं।

(जय श्री राम, पृष्ठ 70)


मुसन्निफ़ के यहाँ ज़बान-ओ-बयान शाइराना है, ख़यालात  की ऊंची उड़ान है, मुसन्निफ़ किसी से डरना नहीं जानता, जो कहता है, सही कहता है और उसे अमली शक्ल देता है, चोट देता है लेकिन मतानत का हाथ नहीं छोड़ता. 

अब आइए उनकी किताब मैदान पर नज़र डालें, ये खालिस ग़ज़लों का मजमुआ है। दोनों किताबों को पढ़ कर जो मजमूई त'आसुर बना वो मुसन्निफ़ ने "एक कर्रे आदमी का खरा बयान" में ज़ाहिर कर दिया, लिखते हैं: 

घर से दूर, ख़ानदान से अलग, सरहदों का दुश्मन, रस्मी बंधनों से आज़ाद, दीनी हुजरों से नावाकिफ, समाजी तमाशों से बेज़ार, सियासी गलियों से गुरेज़ाँ, फ़िक्री दायरों से बेतआल्लुक, घर-आँगन में बाज़ारी रवैय्यों की ठंडक से मुज़महिल, टूट'ती-बिखरती क़द्रों के लिए अजनबी, मगर अपनी आज़ाद मर्ज़ी से उभरने वाले चाँद उसूलों का सख़्ती से पाबन्द, नामवर लोगों के दरमियान मग़रूर-ओ-मोहतात, बेनाम चहरों का बेतक्कालुफ़ साथी, काग़ज़ी नोटों के तालुक से फ़ज़ूलख़र्च, मगर आरज़ू करने, राय बनाने, प्यार देने और वफ़ादारी बरतने की राह में इन्तिहाई बख़ील । कुछ कर गुजरने की सलाहियत से मामूर, मगर साथ ही ख़्वाहिशों की दुश्मनी से भरपूर - बेटा बना, न भाई, साथी बना न दोस्त, किसी भी राइज कसौटी पर पूरा उतरने की सलाहियत से महरूम। घर, समाज, नस्ल, कौम, वतन, दीन, ज़बान, तहजीब, खून, तारीख़  - किसी भी त'आसुब, जज़्बे या इज़्म से फूट के बहने वाले गहरे, लंबे, खुशरंग, ख़ौफ़नाक दरयाओं के ठन्डे, गुनगुने पानियों से बहुत दूर - तन्हा और उदास, बोझल और प्यासा!

(मैदान, पृष्ठ 9)


ये ख़ाका है अनवर नदीम का खुद तहरीर किया हुआ। काश इसमें क़लमी चहरे की रमक भी होती। उनकी तहरीर देखिये, पढ़िए, दिल में उतारिये, मुसन्निफ़ की यही तस्वीर नज़र आयेगी। मैंने कहा ना, मुसन्निफ़ सच बोलता है और सच के सिवा उसे कुछ और बोलना आता ही नहीं। हमें अंदाज़ा था की अनवर नदीम अपनी ग़ज़ल के बारे में अपने त'आस्सुरात लिखेंगे, लेकिन उनकी किताब मैदान में कोइ ज़िक्र ही नहीं। अल्बत्ता इन चाँद सत्रों को लिखते वक़्त उनकी एक और किताब जलते तवे की मुस्कुराहट  मिल गयी।  ये भी इत्तेफ़ाक़ कि उन्होंने ग़ज़ल के मुत्तालिक़ अपने ख़यालात का यूं इज़हार किया है:

उर्दू ग़ज़ल जो बदन के लिए आत्मा और आत्मा के लिए बदन है, जो सांस लेने का अमल और तहज़ीब है, उसे रस्मे ख़त की रतीली सीमाओं में क्यों और कैसे क़ैद किया जाए। यही मुनासिब है की उर्दू ग़ज़ल, अपनी ज़बान, अपनी आवाज़, अपनी तहज़ीब के साथ हिन्दुस्तान भर की ज़बानों के दरमियान जगमगाती रहे। 

(जलते तवे की मुस्कुराहट, पृष्ठ 256)


अब उनकी बेबाकी भी देख लीजिये, (रिपोर्ताज़ की) इसी किताब में दूसरी जगह उनके ख़यालात का अक्स मुलाहज़ा हो: 

अनवर नदीम ने ज़ोर देकर एक नौजवान से पूछा, देखिये, झूट नहीं बोलियेगा , 'मजरूह' साहब की कोई एक ग़ज़ल भी आपकी समझ में आई, बोलिये, हां , ना, में जवाब दीजिये  - "नहीं!" क्या ग़ज़ल का कोई एक शेर पूरी तरह समझ सके  ' "नहीं!" क्या कोइ मिसरा समझ में आया - "नहीं!" क्या किसी मिसरे का कोई आधा-अधूरा टुकड़ा पल्ले पड़ा, शायद नहीं, क्या आप यूं नहीं सोचते कि उर्दू मुशायरे के स्टेज पर फ़ारसी ज़बान की गुंजाइश नहीं है।  कितना अच्छा होता कि जब 'मजरूह' साहब अपनी फ़ारसी-आमेज़ ग़ज़ल सूना रहे थे तो आप दोनों खड़े हो जाते और ज़ोर देकर ये बात कहते कि हम उर्दू मुशायरे के स्टेज पर हिंदुस्तानी फिल्मों के गीतकार 'मजरूह' से उनका उर्दू कलाम सुनना चाहते हैं, फ़ारसी ग़ज़ल नहीं।  इस तरह उनके कान खड़े होते और आप सब का भला होता"  - नदीम ने अपनी बात इस तजवीज़ पर ख़त्म कर दी कि "मैं समझता हूँ मुशायरे की अच्छी तंज़ीम के लिए तामीरी जज़्बे के साथ बामक़सद हूटिंग की ज़रुरत है।" 
(जलते तवे की मुस्कुराहट", प. 257-58)

अनवर नदीम के इन ख़यालात से कौन इत्तेफ़ाक़ नहीं करेगा।  उनकी रविश मुजाहिदाना है, इसलिए क़ाबिल-े -क़द्र है।  उनका एक शेर है: 
मैं अपने सफ़र में अकेला रहूँगा 
मेरी फ़िक्र का रास्ता ही नया है 
एक और ग़ज़ल का एक और शेर है:
दिल में झांको तो उतर आये वही की सूरत 
आसमानों से फ़रिश्तों को बुलाते क्यों हो 
इसी तरह:
ज़िन्दगी तुझको खबर है, हसरतों की आग में 
खेत, जंगल, बाग़ , सब्ज़ा और छप्पर जल गया 

बिलकुल नए रंग-ो -आहंग में एक और शेर:
एक दिन परवाज़ कर जाएगा अंदर का वजूद 
चुटकियों में ख़्वाहिशों की तितलियाँ रह जाएंगी।  
अब कितना ज़िक्र किया जाए, एक ग़ज़ल का एक और शेर और बस:
तेरी पोथी झूट भरी है, लिखने वाले! सच भी बोल 
थोड़ी उलझन थोड़ी नफ़रत प्यार में शामिल लिखता जा 

तवालत के ख़याल से चाँद बातें जो मेरी नहीं, मुसन्निफ़ की हैं, छोड़ गया था, लेकिन मैं समझता हूँ कि मुसन्निफ़ की ये बात भी सुन ही ली जाए : 
"ये बात अच्छी तरह समझ ली जाए कि उर्दू फ़ारसी हर्फों की ज़बान नहीं है, उर्दू दुन्या, ख़ासकर हिन्दुस्तान की उर्दू दुन्या , अरबी और ईरानी तहज़ीबों की कॉलोनी नहीं है।  उर्दू अदब, इस्लामी फ़िक्र-ो-तालीम की कहारी के लिए मख़सूस नहीं है. आज की उर्दू शायरी अपने मौज़ूआत के लिए ग़ैर-मुल्की मरकज़ों की तरफ़ नहीं देखती।"
अनवर नदीम ने वो सब कुछ कह दिया है जो मैं कहना चाहता था। मैं ग़ज़ल के मुताल्लिक मुसन्निफ़ के इन पाकीज़ा ख़यालात को दोहरा ही सकता था, और वही मैंने किया है। पढ़िए और लुत्फ़ लीजिये।