Sunday, December 23, 2018

"सलीब मेरे मसीहा की जगमगाती है" | अनवर नदीम (1937-2017)




"रगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं  क़ायल"
"की  ख़ून -ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ हम ने"
"ज़ख्म-ए-सर है आप अपनी दास्तां/पत्थरों से ज़िंदगी पूछेगी क्या"
"जो चुप रहेगी ज़बान-ए-ख़ंजर, लहू पुकारेगा आसतीं का"

हमारे शेर-ओ-अदब की दुनिया उन्हीं ख़यालों से सुर्ख़रू है
हमारा ईमां रहे सलामत कि ख़ुश कमालों से  सुर्ख़रू है
हज़ार मौक़ों पे खून मांगा है पाक रूहों ने
अज़ल से अब तक हमारी धरती उन्हीं ख़यालों से  सुर्ख़रू है

बस्ती की चौपालों में, खेतों में, खलियानों में
आवारा बंजारों में, हुशियारों, मस्तानों में
बहुत पुरानी एक सदाक़त आज भी कितनी रौशन है
क़ुर्बानी की अज़मत का चर्चा है इन्सानों में

रगों में ख़ून कि गर्दिश है ज़िंदगी की बहार
कभी लहू का ख़ज़ाना है ज़िंदगी पे निसार

लहू - रंग बदन हो कि कारज़ार-ए-ह्यात
हर इक जगह पर यहाँ खून की ज़रूरत है
तमाम आलम-ए-इंसानियत की राहों में
सलीब मेरे मसीहा की जगमगाती है

बड़े यकीन से कहता हूँ सांस लेता है
हर एक सच्चे मुसलमां में एक ईसाई

हमारे अहल-ए-वतन के विशाल हृदय में
जगह बनाई है इस्लाम की हिदायत ने
पयाम-ए-वेद-ए-मुक़द्दस की अज़मतें अक्सर
हमारे आपके अफ़कार में झलकती हैं

न जाने फिर ये तास्सुब कहाँ से उभरा है
तमाम ज़ालिम-ओ-जाबिर यही समझते हैं
वही तो मालिक-ओ-मुख्तार हैं ज़माने के
अगरचे दीन की, हिकमत की कुछ किताबों ने
दरीचे खोल दिये हैं कई फ़सानों के !

मगर कहाँ किसी ज़ालिम ने अपनी ताक़त में
नज़र उठा के कभी इबरतों को देखा है
गुनाहगार तो सब हैं ज़मीं की छाती पर
ग़म तो ये है कि एहसास-ए-गुमरही कम है

इसी खयाल से मरियम के पाक बेटे ने
ये एतराफ़ का तोहफा दिया जमाने को

- अनवर नदीम (1937-2017)

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