Saturday, December 29, 2018

"नया साल" | अनवर नदीम (1937-2017)




आज का दिन भी मिरी रूह पे भारी गुज़रा
आज भी आ गया माज़ी के बिखरने का ख़याल
आज भी चेहरा-ए-उम्मीद था ज़ख़्मी ज़ख़्मी
मेरा बचपन ही मिरी ज़ात से लिपटा लिपटा
फूट के आज भी रोता रहा मेरे अंदर
ख़्वाहिशें आज भी मजबूर-ो-परेशान निकलीं
हसरतें धुल उड़ाती रहीं एहसास के बीच
हौसले आज भी घबरा गए बैठे बैठे
आज का दिन भी मिरी रूह पे भारी गुज़रा !

फिर भी ये रस्म की लेना है हर इक चेहरे से
हर नए साल के मौक़े पे मुबारकबादी
और रस्मन उसे वापिस भी यही करना है
ये भी अच्छा है की करने को नहीं कोई अमल
कोई मंज़िल, न किसी राह की धुंधली सी लकीर !
आज का दिन भी मिरी रूह पे भारी गुज़रा

हर नया साल इसी रस्म की उंगली थामे
गर्दिशें करके कहीं दूर निकल जाता है
और हम लोग बड़े शौक़ से होते हैं जमा
अलविदा कह के समझते हैं नयी बात हुई
फिर नए साल की देते हैं मुबारकबादी !

- अनवर नदीम (1937-2017)

1 comment:

nadeem said...

बहुत खूब,हम सब इसी का शिकार हैं लेकिन ना उम्मीद नहीं