कमसिनी का निखार चेहरे पर
ख्वाहिशों का ख़ुमार आंखों में
उसकी आँखें हैं ठहरे बादल पर
उसका चेहरा है उसकी बाहों में
सामने एक छोटे मैदां में
एक झूले का शोर फूटे है
नन्हे-मुन्ने हज़ार चेहरों को
एक झोले की झोंक थामे है
उसकी बाहों की क़ैद कैसी है
उसके चेहरे पे है थकन ऐसी
जैसे सदियों की ठोकरें खाकर
मुज़महिल बैठ जाए कोइ सदी
मैं जिसे देखने की ख़्वाहिश में
अपने कोठे पे रोज़ आता हूँ
वो फरिश्ता उदास लगता है
उसका ग़म लेके लौट जाता हूँ
(अनवर नदीम)
1 comment:
Very beautiful pic n very appropriate and classy poem. Heart touching poetry .
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