Friday, September 6, 2019

"परवेज़, ग़नी, मुश्ताक़ ! सुनो !" | अनवर नदीम (1937-2017)



परवेज़, ग़नी, मुश्ताक़ ! सुनो
ये बात तुम ही से कहना है

ये दुनिया आड़ी, तिरछी है, ये दुनिया दुःख की नगरी है
बेचैन यहां इक तुम ही नहीं पाबन्द-ए-फ़गां इक तुम ही नहीं
क्या ग़ालिब, क्या इक़बाल मियाँ हर दानिशवर बेहाल मियां
तुम दिल में झांको, देखो तो कुछ दाग़ मिलेंगे, समझो तो

परवेज़, ग़नी, मुश्ताक़ ! सुनो
ये बात तुम ही से कहना है

दुनिया को बनाने वाले ने धरती को सजाने वाले ने
आमाल का रुख़  किया कुछ बन्दों ने बरदाद किया
जब चोट लगी तो सोच लिया सुख चैन सभी का लूटेंगे
मज़लूम हुए तो ठान लिया हर ज़ालिम का सर तोड़ेंगे
इक पत्थर सर को छेड़ गया वहशत का मौसम हाथ आया 
बस बदले की काली आंधी , अफ़सोस बनी जीवन साथी

परवेज़, ग़नी, मुश्ताक़ ! सुनो
ये बात तुम ही से कहना है

इंसाफ़ का मतलब ये तो नहीं बदले का गुज़र हो जाए कहीं
बदले का जुनूं क्यों राज करे संसार को यूँ ताराज करे

परवेज़, ग़नी, मुश्ताक़ ! सुनो
ये बात तुम ही से कहना है

टीपू से लेकर गाँधी तक इस देश पर मरने वालो की
तारीख़ बहुत ही रोशन है तारीख़ के रोशन पन्नों से
क्यों नाम तुम्हारा ख़ारिज है ! क्यों नाम तुम्हारा ख़ारिज है !

परवेज़, ग़नी, मुश्ताक़ ! सुनो
तुम पर भी जवानी आयी थी 
और ख़ून की गर्मी बोली थी
तुम भी तो घर से निकले थे
तुम ने भी लड़ाई छेड़ी थी !
लेकिन वो लड़ाई कैसी थी
तारीख़ के रोशन पन्नों से
क्यों नाम तुम्हारा ख़ारिज है

परवेज़, ग़नी, मुश्ताक़ ! सुनो
ये बात तुम ही से पूछेंगे
ये बात तुम ही से पूछेंगे

- अनवर नदीम (1937-2017)

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