नफ़रतें, ज़ुल्म-ो- सितम, ईसार, क़ुर्बानी, वफ़ा
हर ज़माने का मुक़द्दर बन के सब ज़िंदा रहे
ज़िन्दगी हम ने गुज़ारी या गुज़रना था उसे
चंद रोज़ा सरगिरानी से उतरना था उसे
आदम-ो-हव्वा की ये औलाद भी क्या-क्या सहे
रोज़-ो-शब् बनती रही टकराव की वहशी फ़ज़ा !
मेरे घर आंगन पे है इस्लाम का गहरा असर
फूल से बच्चों के सारे नाम हैं अरबीज़दा
और उनके नाम जैसे लोग जब करते हैं वार
क़त्ल-ो-ग़ारत, आग, अंगारे, धुंआ, चीख़-ो-पुकार
और बन जाता है ये गुलज़ार इक ज़ुल्मतकदा
नस्ल-े-नौ पर पड़ रहा है देखिये कैसा असर !
मेरे बच्चों को ख़बर है नाम के प्रभाव की
उस का इक हमनाम दहशतगर्द कैसे बन गया
एक अच्छा नाम मुल्क-ो-क़ौम का रहज़न बना
अम्न का तहज़ीब का इक़दार का दुश्मन बना
और इस उलझन में इक मासूम का बचपन गया
राह निकले भी तो कैसे प्यार के बर्ताव की
- अनवर नदीम (1937-2017)
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