Saturday, July 9, 2022

भाईचारे का पैग़ाम

 

छोटे-छोटे, बड़े और काफ़ी बड़े

दायरे हैं यहां जज़्ब-ो-फ़िक्र के

क्या समाजी रव्वैयों की बातें करें

क्या सियासी तग़य्युर के सपने बुनें 

जान-ो-तन पर ग़ुबारे ग़म-े -ज़िन्दगी

रूह चीख़ा करे रौशनी, रौशनी 

दीन के, फ़िक्र के, धर्म के दायरे

हर कहीं कुछ उसूलों के दुँधले दिए 

सरहदों के इधर भी वही ज़िंदगी

सरहदों के उधर भी यही ज़िन्दगी 

ज़ुल्मतें, ठोकरें, ख़ौफ़, बेचारगी

नफ़रतों की वही एक अंधी गली 

ऐसे माहौल में, ऐसे हालात में

ये बताये कोई ज़ख्म-खुर्दा-बशर सांस लेने की ख़ातिर कहाँ तक जिए !

रूह के कर्ब की सारी तशनालबी है अज़ल से इसी एक अंदाज़ की ! 

दिल को पूजा की सूरतगरी चाहिए

हम को रोज़ों की ज़िंदादिली चाहिए 

ताकि हर साल खुशियों का तोहफ़ा मिले

रूह को पाक रखने का जज़्बा मिले 

ईद का चाँद हर साल खिलता रहे

भाईचारे का पैग़ाम मिलता रहे 

ईद का चाँद हर साल खिलता रहे 

- अनवर नदीम (1937-2017)



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